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हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया

हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया

क्या किया मैं ने कि इज़हार-ए-तमन्ना कर दिया

बढ़ गईं तुम से तो मिल कर और भी बेताबियाँ

हम ये समझे थे कि अब दिल को शकेबा कर दिया

पढ़ के तेरा ख़त मिरे दिल की अजब हालत हुई

इज़्तिराब-ए-शौक़ ने इक हश्र बरपा कर दिया

हम रहे याँ तक तिरी ख़िदमत में सरगर्म-ए-नियाज़

तुझ को आख़िर आश्ना-ए-नाज़-ए-बेजा कर दिया

अब नहीं दिल को किसी सूरत किसी पहलू क़रार

उस निगाह-ए-नाज़ ने क्या सेहर ऐसा कर दिया

इश्क़ से तेरे बढ़े क्या क्या दिलों के मर्तबे

मेहर ज़र्रों को किया क़तरों को दरिया कर दिया

क्यूँ न हो तेरी मोहब्बत से मुनव्वर जान ओ दिल

शम्अ जब रौशन हुई घर में उजाला कर दिया

तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल

देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया

सब ग़लत कहते थे लुत्फ़-ए-यार को वजह-ए-सुकूँ

दर्द-ए-दिल उस ने तो 'हसरत' और दूना कर दिया

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