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हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो

हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो

जब हो ऐसा तो इलाज-ए-दिल-ए-शैदा क्या हो

कसरत-ए-हुस्न की ये शान न देखी न सुनी

बर्क़ लर्ज़ां है कोई गर्म-ए-तमाशा क्या हो

बे-मिसाली के हैं ये रंग जो बा-वस्फ़-ए-हिजाब

बे-नक़ाबी पर तिरा जल्वा-ए-यकता क्या हो

देखें हम भी जो तिरे हुस्न-ए-दिल-आरा की बहार

इस में नुक़सान तिरा ऐ गुल-ए-राना क्या हो

हम ग़रज़-मंद कहाँ मर्तबा-ए-इश्क़ कहाँ

हम को समझें वो हवस-कार तो बेजा क्या हो

दिल-फ़रेबी है तिरी बाइस-ए-सद जोश ओ ख़रोश

हाल ये हो तो दिल-ए-ज़ार शकेबा क्या हो

रात दिन रहने लगी उस सितम-ईजाद की याद

'हसरत' अब देखिए अंजाम हमारा क्या हो

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