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हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया

तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया

एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल

इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया

महफ़िल-ए-यार की रह जाएगी आधी रौनक़

नाज़ को उस ने अगर अंजुमन-आरा न किया

तान-ए-अहबाब सुने सरज़निश-ए-ख़ल्क़ सही

हम ने क्या क्या तिरी ख़ातिर से गवारा न किया

जब दिया तुम ने रक़ीबों को दिया जाम-ए-शराब

भूल कर भी मिरी जानिब को इशारा न किया

रू-ब-रू चश्म-ए-तसव्वुर के वो हर वक़्त रहे

न सही आँख ने गर उन का नज़ारा न किया

गर यही है सितम-ए-यार तो हम ने 'हसरत'

न किया कुछ भी जो दुनिया से किनारा न किया

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