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हर हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

हर हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे

हर हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे

मायूस कर सका न हुजूम-ए-बला मुझे

हर नग़्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम

हर साज़ ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे

हर बात में उन्हीं की ख़ुशी का रहा ख़याल

हर काम से ग़रज़ है उन्हीं की रज़ा मुझे

रहता हूँ ग़र्क़ उन के तसव्वुर में रोज़ ओ शब

मस्ती का पड़ गया है कुछ ऐसा मज़ा मुझे

रखिए न मुझ पे तर्क-ए-मोहब्बत की तोहमतें

जिस का ख़याल तक भी नहीं है रवा मुझे

काफ़ी है उन के पा-ए-हिना-बस्ता का ख़याल

हाथ आई ख़ूब सोज़-ए-जिगर की दवा मुझे

क्या कहते हो कि और लगा लो किसी से दिल

तुम सा नज़र भी आए कोई दूसरा मुझे

बेगाना-ए-अदब किए देती है क्या करूँ

उस महव-ए-नाज़ की निगह-ए-आशना मुझे

उस बे-निशाँ के मिलने की 'हसरत' हुई उम्मीद

आब-ए-बक़ा से बढ़ के है ज़हर-ए-फ़ना मुझे

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