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है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी

है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी

इक तुर्फ़ा तमाशा है 'हसरत' की तबीअत भी

जो चाहो सज़ा दे लो तुम और भी खुल खेलो

पर हम से क़सम ले लो की हो जो शिकायत भी

दुश्वार है रिंदों पर इंकार-ए-करम यकसर

ऐ साक़ी-ए-जाँ-परवर कुछ लुत्फ़-ओ-इनायत भी

दिल बस-कि है दीवाना उस हुस्न-ए-गुलाबी का

रंगीं है उसी रू से शायद ग़म-ए-फ़ुर्क़त भी

ख़ुद इश्क़ की गुस्ताख़ी सब तुझ को सिखा देगी

ऐ हुस्न-ए-हया-परवर शोख़ी भी शरारत भी

बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी

बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी

उश्शाक़ के दिल नाज़ुक उस शोख़ की ख़ू नाज़ुक

नाज़ुक इसी निस्बत से है कार-ए-मोहब्बत भी

रखते हैं मिरे दिल पर क्यूँ तोहमत-ए-बेताबी

याँ नाला-ए-मुज़्तर की जब मुझ में हो क़ुव्वत भी

ऐ शौक़ की बेबाकी वो क्या तेरी ख़्वाहिश थी

जिस पर उन्हें ग़ुस्सा है इंकार भी हैरत भी

हर-चंद है दिल शैदा हुर्रियत-ए-कामिल का

मंज़ूर-ए-दुआ लेकिन है क़ैद-ए-मोहब्बत भी

हैं 'शाद' ओ 'सफ़ी' शाइर या 'शौक़' ओ 'वफ़ा' 'हसरत'

फिर 'ज़ामिन' ओ 'महशर' हैं 'इक़बाल' भी 'वहशत' भी

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