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घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता

घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता

बढ़ेगा आशिक़ी का ए'तिबार आहिस्ता आहिस्ता

बहुत नादिम हुए आख़िर वो मेरे क़त्ल-ए-नाहक़ पर

हुई क़द्र-ए-वफ़ा जब आश्कार आहिस्ता आहिस्ता

जिला-ए-शौक़ से आईना-ए-तस्वीर-ए-ख़ातिर में

नुमायाँ हो चला रू-ए-निगार आहिस्ता आहिस्ता

मोहब्बत की जो फैली है ये निकहत बाग़-ए-आलम में

हुई है मुंतशिर ख़ुशबू-ए-यार आहिस्ता आहिस्ता

दिल ओ जान ओ जिगर सब्र ओ ख़िरद जो कुछ है पास अपने

ये सब कर देंगे हम उन पर निसार आहिस्ता आहिस्ता

अजब कुछ हाल हो जाता है अपना बे-क़रारी से

बजाते हैं कभी जब वो सितार आहिस्ता आहिस्ता

असर कुछ कुछ रहेगा वस्ल में भी रंज-ए-फ़ुर्क़त का

दिल-ए-मुज़्तर को आएगा क़रार आहिस्ता आहिस्ता

न आएँगे वो 'हसरत' इंतिज़ार-ए-शौक़ में यूँही

गुज़र जाएँगे अय्याम-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता

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