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दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग

दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग

आह उस चश्म-ए-पुर-हिजाब के रंग

फ़स्ल-ए-गुल में पड़ें तो ख़ूब खिलें

ख़िर्क़ा-ए-ज़ोहद पर शराब के रंग

शौक़-ए-मय दिल में लब पे हिजव-ए-शराब

हम पे रौशन हैं सब जनाब के रंग

नहीं तौबा की ख़ैर हैं जो यही

जोश-ए-हंगामा-ए-सहाब के रंग

कल के मक़्बूल आज हैं मरदूद

आह इस दौर-ए-इंक़िलाब के रंग

क़ाबिल-ए-दीद हैं विसाल की शब

आरज़ू-हा-ए-कामयाब के रंग

चेहरा-ए-आशिक़ी है पज़-मुर्दा

क्या हुए वो मय-ए-शबाब के रंग

ख़ैल-ए-ख़ूबाँ से एक में भी नहीं

आप के हुस्न-ए-ला-जवाब के रंग

मेरी मायूसियों से हैं पैदा

कशमकश-हा-ए-इज़्तिराब के रंग

दिल के हाथों बहुत रहे हैं ख़राब

'हसरत'-ए-ख़ानुमाँ ख़राब के रंग

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