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बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की

बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की

वाह क्या बात है उस चेहरा-ए-नूरानी की

शौक़ देखे तुझे किस आँख से ऐ मेहर-ए-जमाल

कुछ निहायत ही नहीं तेरी दरख़शानी की

मुझ से वो सग भी है अफ़ज़ल जिसे इज़्ज़त हो नसीब

आस्तान-ए-हरम-ए-यार पे दरबानी की

जब सुना याद किया करते हो तुम भी तो मुझे

क्या कहूँ हद न रही कुछ मिरी हैरानी की

सई-ए-अहबाब को नाहक़ है रिहाई का ख़याल

और ही कुछ है तमन्ना तिरे ज़िंदानी की

वो तबस्सुम भी क़यामत है तिरा बाद-ए-जफ़ा

तू ने दी हो जिसे ख़िदमत नमक-अफ़्शानी की

मुश्किलों से जो मुक़ाबिल हुई हिम्मत मेरी

क़द्र बाक़ी न रही ऐश-ए-तन-आसानी की

रह गया जल के तिरी बज़्म में परवाना जो रात

खींच गई शक्ल मिरी सोख़्ता-सामानी की

रश्क-ए-शाही हो न क्यूँ अपनी फ़क़ीरी 'हसरत'

कब से करते हैं ग़ुलामी शह-ए-जीलानी की

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