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अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम

अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम

घबरा गए हैं बे-दिली-ए-हमरहाँ से हम

कुछ ऐसी दूर भी तो नहीं मंज़िल-ए-मुराद

लेकिन ये जब कि छूट चलें कारवाँ से हम

ऐ याद-ए-यार देख कि बा-वस्फ़-ए-रंज-ए-हिज्र

मसरूर हैं तिरी ख़लिश-ए-ना-तवाँ से हम

मालूम सब है पूछते हो फिर भी मुद्दआ

अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम

ऐ ज़ोहद-ए-ख़ुश्क तेरी हिदायत के वास्ते

सौग़ात-ए-इश्क़ लाए हैं कू-ए-बुताँ से हम

बेताबियों से छुप न सका हाल-ए-आरज़ू

आख़िर बचे न उस निगह-ए-बद-गुमा से हम

पीराना-सर भी शौक़ की हिम्मत बुलंद है

ख़्वाहान-ए-काम-ए-जाँ हैं जो उस नौजवाँ से हम

मायूस भी तो करते नहीं तुम ज़-राह-ए-नाज़

तंग आ गए हैं कशमकश-ए-इम्तिहाँ से हम

ख़ल्वत बनेगी तेरे ग़म-ए-जाँ-नवाज़ की

लेंगे ये काम अपने दिल-ए-शादमाँ से हम

है इंतिहा-ए-यास भी इक इब्तिदा-ए-शौक़

फिर आ गए वहीं पे चले थे जहाँ से हम

'हसरत' फिर और जा के करें किस की बंदगी

अच्छा जो सर उठाएँ भी इस आस्ताँ से हम

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