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आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी

आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी

मालूम हुई राह-ए-मोहब्बत की दराज़ी

कुछ लुत्फ़ ओ नज़र लाज़िम ओ मलज़ूम नहीं हैं

इक ये भी तमन्ना की न हो शोबदा बाज़ी

दिल ख़ूब समझता है तिरे हर्फ़-ए-करम को

हर-चंद वो उर्दू है न तुर्की है न ताज़ी

क़ाइम है न वो हुस्न-ए-रुख़-ए-यार का आलम

बाक़ी है न वो शौक़ की हंगामा-नवाज़ी

ऐ इश्क़ तिरी फ़तह बहर-हाल है साबित

मर कर भी शहीदान-ए-मोहब्बत हुए ग़ाज़ी

कर जल्द हमें ख़त्म कहीं ऐ ग़म-ए-जानाँ

काम आएगी किस रोज़ तिरी सीना-गुदाज़ी

मालूम है दुनिया को ये 'हसरत' की हक़ीक़त

ख़ल्वत में वो मय-ख़्वार है जल्वत में नमाज़ी

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