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उस ज़ुल्फ़ से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

उस ज़ुल्फ़ से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया

उस ज़ुल्फ़ से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया

ये सिलसिला-ए-उल्फ़त कर याद बहुत रोया

रहम उस को न था हरगिज़ हर चंद बहाल-ए-सग

उस कूचे में मैं कर कर फ़रियाद बहुत रोया

मज़लूमी मिरी और ज़ुल्म देख उस बुत-ए-काफ़िर का

रहम आया सितम के तईं बे-दाद बहुत रोया

दिल ग़म से न हो ख़ाली रोने से मिरा लेकिन

ता हो मिरे रोने से वो शाद बहुत रोया

इस इश्क़ की मजबूरी नासेह पे खुली जब से

कर मन-ए-मोहब्बत का इरशाद बहुत रोया

देखी न ख़ुदा-तरसी इक गब्र ओ मुसलमाँ से

हर इक से तलब कर कर मैं दाद बहुत रोया

अंजाम मोहब्बत का बूझा था मगर उस को

जब दिल लगा शीरीं से फ़रहाद बहुत रोया

है ताज़ा-गिरफ़्तारों की फ़रियाद को क्या रिक़्क़त

शब नाला मिरा सुन कर सय्याद बहुत रोया

संगीं-दिली उस बुत की मैं जिस से कही 'हसरत'

हर-चंद दिल उस का था फ़ौलाद बहुत रोया

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