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साक़ी हैं रोज़-ए-नौ-बहार यक दो सह चार पंज ओ शश - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

साक़ी हैं रोज़-ए-नौ-बहार यक दो सह चार पंज ओ शश

साक़ी हैं रोज़-ए-नौ-बहार यक दो सह चार पंज ओ शश

दे मुझे जाम-ए-ख़ुश-गवार यक दो सह चार पंज ओ शश

बोसा मैं लूँगा गिन के यार यक दो सह चार पंज ओ शश

कह चुका बस मैं एक बार यक दो सह चार पंज ओ शश

पहुँचें न तुझ को गुल-इज़ार यक दो सह चार पंज ओ शश

रुख़ तिरा एक और बहार यक दो सह चार पंज ओ शश

घेरें रहें हैं तुझ को यार यक दो सह चार पंज ओ शश

सैद तू जो करे शिकार यक दो सह चार पंज ओ शश

सुब्ह-ए-विसाल का भी दिन देखूँगा ऐ ख़ुदा कभी

हो चुकीं शाम-ए-इंतिज़ार यक दो सह चार पंज ओ शश

जी मिरा चाहता है यूँ होवे जो दस्तरस कभी

तुझ पर करूँ मैं जाँ-निसार यक दो सह चार पंज ओ शश

बोसों के तेरे लब पे हैं मेरे उधार बे-शुमार

दे है तू कुछ भी कर शुमार यक दो सह चार पंज ओ शश

हिज्र की शब ऐ माह-रू रो रो गिनें हैं सुब्ह तक

तारे ये चश्म-ए-अश्क-बार यक दो सह चार पंज ओ शश

उँगलियों पे गिनूँ हूँ मैं घड़ियाँ उमीद-ए-वस्ल में

जूँ गिने साहिब-ए-क़िमार यक दो सह चार पंज ओ शश

शश-जिहत-ए-जहाँ के पेच मुँह करूँ जिधर को मैं

होते हैं मुझ से ग़म दो-चार यक दो सह चार पंज ओ शश

'हसरत'-ए-ग़म-ज़दा का ग़म खावेगा तू अगर न यार

उस के हैं तुझ से ग़म-गुसार यक दो सह चार पंज ओ शश

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