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रखा पा जहाँ में नगारा ज़मीं पर - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

रखा पा जहाँ में नगारा ज़मीं पर

रखा पा जहाँ में नगारा ज़मीं पर

बहुत सर को वाँ हम ने मारा ज़मीं पर

जुनूँ जोश मारे है दीवार-ओ-दर से

हुआ किस परी का गुज़ारा ज़मीं पर

नहीं है ये आह-ए-फ़लक सा कि हम ने

अलम शोर-ए-सौदा का गाढ़ा ज़मीं पर

क़दम जिस जगह रक्खा उस संग-दिल ने

न हो वाँ ब-जुज़ संग-ए-ख़ारा ज़मीं पर

नज़र से तिरी जिस ने हम को गिराया

फ़लक से उठा कर के मारा ज़मीं पर

तू रू-ए-ज़मीं देख ले सैर हो कर

न होगा गुज़र फिर दोबारा ज़मीं पर

तिरे नक़्श-ए-पा को कहे अपना हम-सर

नहीं है ये मुँह तो हमारा ज़मीं पर

वो ज़ोहरा-जबीं मेहरबाँ होवे 'हसरत'

कहाँ है ये अपना सितारा ज़मीं पर

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