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करे आशिक़ पे वो बेदाद जितना उस का जी चाहे - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

करे आशिक़ पे वो बेदाद जितना उस का जी चाहे

करे आशिक़ पे वो बेदाद जितना उस का जी चाहे

रखे दिल को मिरे नाशाद जितना उस का जी चाहे

हमें भी सब्र ख़ातिर-ख़्वाह दाद-ए-हक़ है उल्फ़त में

वो दे जौर ओ जफ़ा की दाद जितना उस का जी चाहे

ये मज़लूम-ए-मोहब्बत दाद-रस हरगिज़ न पावेगा

करे दिल-दाद और फ़रियाद जितना उस का जी चाहे

अदम है और वजूद उस मुश्त-ए-पर का भी मसावी सा

सितम हम पर करे सय्याद जितना उस का जी चाहे

बला-ए-ना-गहाँ गिर्या गिरफ़्तारी नहीं ग़ाफ़िल

वो हो ग़म से मिरे आज़ाद जितना उस का जी चाहे

नहीं है सरनविश्त उस की लब-ए-जाँ-बख़्श-शीरीं की

करे जाँ-कंदनी फ़रहाद जितना उस का जी चाहे

हमें 'हसरत' फ़रामोशी भी उस की यादगारी है

करे गो हम को कम-तर याद जितना उस का जी चाहे

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