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कम-तर या बेशतर गए हम - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

कम-तर या बेशतर गए हम

कम-तर या बेशतर गए हम

उस दर से ब-चश्म-ए-नम गए हम

इक गुल न चुना हम उस चमन से

ले अपना ही मुश्त-ए-पर गए हम

बैज़े से निकालते ही सर हैफ़

यूँ क़ैद-ए-क़फ़स में पड़ गए हम

बिन यार लगा न दिल किधर भी

जितना कि इधर उधर गए हम

क्या दूर से मुस्कुरा के सरका

कल उस की नज़र जो पड़ गए हम

दुनिया का व दीं का हम को क्या होश

मस्त आए व बे-ख़बर गए हम

उस जान-ए-अज़ीज़ ने न पूछा

जीते हैं या कि मर गए हम

कुछ काम न था हमें किसी से

लेने दिल की ख़बर गए हम

इतनी मुद्दत के बअ'द 'हसरत'

कल रात जो उस के घर गए हम

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