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जो हमें चाहे उस के चाकिर हैं - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

जो हमें चाहे उस के चाकिर हैं

जो हमें चाहे उस के चाकिर हैं

यार-ए-शातिर न बार-ए-ख़ातिर हैं

याद है हम से प्यार से कहना

तुझ से हम सब तरह से हाज़िर हैं

दिल उठावेंगे तुझ से ता-मक़्दूर

सब्र करने पे गो न क़ादिर हैं

यार ओ आशिक़ बहम मुआफ़िक़ हों

इत्तिफ़ाक़ ऐसे शाज़-ओ-नादिर हैं

वस्ल की बिन न आई कुछ तदबीर

हम से कम आशिक़ों में बद-बिर हैं

कुछ क़ुसूर अपनी बंदगी में नहीं

बंदगी से अगर मुक़स्सिर हैं

'हसरत' इश्क़-ए-बुताँ से माँग अमाँ

जितने हैं सब ये सख़्त काफ़िर हैं

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