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जिस का मयस्सर न था भर के नज़र देखना - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

जिस का मयस्सर न था भर के नज़र देखना

जिस का मयस्सर न था भर के नज़र देखना

कहता है ख़त आए पर टुक तो इधर देखना

बोला वो हँस के कि हाँ देखे हैं तुझ से बहुत

मैं जो कहा है ग़रज़ मुझ को मगर देखना

देखूँ न वो दिन कि मैं मिन्नत-ए-एहसान लूँ

शाम मिरी ऐ फ़लक हो न सहर देखना

रोज़-ए-विदाअ उस को देख इक दो नज़र सैर हो

देख ले फिर हम कहाँ और किधर देखना

यार हुआ बे-दिमाग़ सुन मिरा शोर-ए-जुनूँ

आह-ओ-फ़ुग़ाँ का मिरी यारो असर देखना

जिस की तू देखे है राह मेरी नज़र में है ख़ूब

इक दम इधर देखना इक दम अधर देखना

इतना गया-गुज़रा भी मुझ को न वाँ से समझ

ग़ैर तू उस कूचे से फिर तो गुज़र देखना

ख़िल्क़त-ए-ख़ूबाँ के बीच क़ुबह-ए-ख़ुदा निकले है

ऐब है उसे मुनकिरो हुस्न अगर देखना

दीदा-ए-बारीक-बीं राह-ए-अदम पर हो जूँ

मर्ग पे दिल धरना है उस की कमर देखना

'हसरत' उसे दिल-कुशा जैसे है दरिया की सैर

मेरे लब-ए-ख़ुश्क और दीदा-ए-तर देखना

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