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इश्क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़मनाक है - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

इश्क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़मनाक है

इश्क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़मनाक है

गुल भी उस के ग़म में देखो किया गरेबाँ-चाक है

दा़ग-बर-दाग़ अश्क-बर-अश्क अपनी चश्म ओ दिल में हैं

क्या बला गुल-ख़ेज़ ऐ यारो ये मुश्त-ए-ख़ाक है

ऐ ख़िज़र जाऊँ कहाँ मैं कूचा-ए-मय-ख़ाना छोड़

ख़ुश-दिली का मौलिद ओ मंशा ये ख़ाक-ए-पाक है

ग़र्क़-सर-ता-पा हूँ बहर-ए-बे-करान-ए-ख़ूँ में मैं

आश्ना पूछे है तो ये चश्म क्यूँ नमनाक है

सर्व की निस्बत से उस क़द्द-ए-बला बाला को क्या

ख़ुश्क चोब-ए-पा बिगुल ये वो क़द-ए-चालाक है

हाए किन आँखों से देखूँ उस रुख़-ए-रौशन पे ख़त

चश्मा-ए-ख़ुर्शीद में ये क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक है

काफ़िर ओ मोमिन को रिक़्क़त ग़म में है 'हसरत' के हाए

कुछ ख़ुदा का डर भी तुझ को ऐ बुत-ए-बेबाक है

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