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हर घड़ी मत रूठ उस से फेर पल में मिल न जा - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

हर घड़ी मत रूठ उस से फेर पल में मिल न जा

हर घड़ी मत रूठ उस से फेर पल में मिल न जा

गर भला मानस है उस कूचे में तू ऐ दिल न जा

अव्वल-ए-इश्क़ उन बुतों का लुत्फ़ है दाम-ए-फ़रेब

उस की मेहर-ओ-दिलबरी पर ऐ दिल-ए-माइल न जा

तेग़-ए-कीं से ख़ाक-ओ-ख़ूँ में कर लिया हाए मुझे

रक़्स-ए-बिस्मिल का तमाशा देख ऐ क़ातिल न जा

हम-सरी का उस क़द-ए-मौज़ूँ से तू दावा न कर

अपनी हद से बाहर ऐ शमशाद-ए-पादर-गिल न जा

इश्क़ के कू में कि है जा-ए-मलामत बे-ख़बर

आना फिर वाँ से सलामत है बहुत मुश्किल न जा

ज़ाहिदा रिंदों की गुस्ताख़ी को ख़ातिर में न ला

हम से दीवानों की बातों पर तू ऐ आक़िल न जा

हाथ मलता ही रहा 'हसरत' दिल उस को दे के हैफ़

हाथ से ऐसी तरह या-रब किसी का दिल न जा

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