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है याद तुझ से मेरा वो शर्ह-ए-हाल देना - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

है याद तुझ से मेरा वो शर्ह-ए-हाल देना

है याद तुझ से मेरा वो शर्ह-ए-हाल देना

और सुन के तेरा उस को हँस हँस के टाल देना

कर कर के याद उस की बेहाल हूँ निहायत

फ़ुर्सत ज़रा तू मुझ को तू ऐ ख़याल देना

उस ज़ुल्फ़-ए-कज के उक़्दे हरगिज़ खुले न मुझ पर

क्यूँ उस को शाना कर के एक एक बाल देना

मैं मुद्दआ को अपने महमिल कहूँ हूँ तुझ से

गोश-ए-दिल अपना ईधर साहब-ए-जमाल देना

इस उम्र भर में तुझ से माँगा है एक बोसा

ख़ाली पड़े न प्यारे मेरा सवाल देना

हम से रुखाइयाँ और मुँह झुलसे मुद्दई का

बोसा पे बोसा हर दम दूँ बे-सवाल देना

या-रब किसी पे हरगिज़ आशिक़ कोई न हो जो

दिल हाथ दिलबरों के है बद-मआल देना

वो मेहरबाँ कि हम को अल्ताफ़-ए-बर-महल से

पास अपने से था उस को उठने मुहाल देना

देखे है दूर से तो कहता है बे-मुरव्वत

ये कौन आ घुसा है इस को निकाल देना

क़ाबू है तेरा 'हसरत' मत छोड़ मुद्दई को

दुश्मन को मस्लहत नीं हरगिज़ मजाल देना

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