गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता
गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता
होता न मैं महजूर वो महजूब न होता
आफ़त-तलब अपने जो दिल ओ दीदा न होते
तालिब मैं तिरा तू मिरा मतलूब न होता
मेरी सी तरह इश्क़ से होता कभी बेताब
एजाज़-नुमा सब्र का अय्यूब न होता
नामे का मिरे ये था जवाब ऐ मह-ए-नौ-ख़त
ये क़ाएदा-ए-क़ासिद-ओ-मक्तूब न होता
तर्ग़ीब-ए-वफ़ा करना तुझे मुझ पे रवा था
गर शेवा जफ़ा का तिरा मर्ग़ूब न होता
'हसरत' न अगर उस का क़द ओ ज़ुल्फ़ बनाते
दुनिया में कहीं फ़ित्ना-ओ-आशोब न होता
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