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गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता

गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता

होता न मैं महजूर वो महजूब न होता

आफ़त-तलब अपने जो दिल ओ दीदा न होते

तालिब मैं तिरा तू मिरा मतलूब न होता

मेरी सी तरह इश्क़ से होता कभी बेताब

एजाज़-नुमा सब्र का अय्यूब न होता

नामे का मिरे ये था जवाब ऐ मह-ए-नौ-ख़त

ये क़ाएदा-ए-क़ासिद-ओ-मक्तूब न होता

तर्ग़ीब-ए-वफ़ा करना तुझे मुझ पे रवा था

गर शेवा जफ़ा का तिरा मर्ग़ूब न होता

'हसरत' न अगर उस का क़द ओ ज़ुल्फ़ बनाते

दुनिया में कहीं फ़ित्ना-ओ-आशोब न होता

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