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अज़ीज़ो तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

अज़ीज़ो तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ

अज़ीज़ो तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ

निपट ही तुंद है ज़ालिम की ख़ू हुआ सो हुआ

ख़ता से उस की नहीं नाम को ग़ुबार-ए-मलाल

मैं रो रो डाला है सब दिल से धो हुआ सो हुआ

मिरी ख़ता या जफ़ा थी तिरी ये क्या है ज़िक्र

हुआ जो चाहिए फिर तो न हो हुआ सो हुआ

हँसे है दिल में ये ना-दर्दमंद सब सुन सुन

तो दुख को इश्क़ के ऐ दिल न रो हुआ सो हुआ

सितमगरो जो तुम्हें रहम की हो कुछ तौफ़ीक़

सितम की अपने तलाफ़ी करो हुआ सो हुआ

तू कौन है कि हो मिलने से ग़ैर कै माने'

दिल उस को हाथ से अपने न खो हुआ सो हुआ

न सरगुज़िश्त मिरी पूछ मुझ से कुछ ऐ बख़्त

तू अपने ख़्वाब-ए-फ़राग़त में सो हुआ सो हुआ

मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत है

मैं छोड़ूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ

बयान-ए-हाल से रुकता है 'हसरत' अब यारो

न पूछो उस से न कुछ तुम कहो हुआ सो हुआ

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