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अब तुझ से फिरा ये दिल-ए-नाकाम हमारा - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

अब तुझ से फिरा ये दिल-ए-नाकाम हमारा

अब तुझ से फिरा ये दिल-ए-नाकाम हमारा

उस कूचे में कम ही रहेगा काम हमारा

है सख़्त मिरे दरपा-ए-जाँ तेरा ग़म-ए-हिज्र

जानाँ से कहे जा कोई पैग़ाम हमारा

जागीर में है ग़ैर की वो बोसा-ए-लब गो

क़ाएम रहे ये मंसब-ए-दुश्नाम हमारा

होने नहीं पाते ये मिरे दीदा-ए-तर ख़ुश्क

दौलत से तिरी तर है सदा जाम हमारा

दो दिन में किसी काम का रहने का नहीं तू

कुछ तुझ से निकल ले कभी तो काम हमारा

इक रोज़ मिला आलम-ए-मस्ती में जो हम से

तन्हा बुत-ए-बदमस्त मय-आशाम हमारा

शमशीर अलम कर के लगा कहने रखूँ ठोर

बदनाम तू करता फिरे है नाम हमारा

अय्याम के हर ज़िक्र से और फ़िक्र से फ़ारिग़

या इश्क़ है विर्द-ए-सहर-ओ-शाम हमारा

होता न फ़रेबंदा-ए-दिल काश के 'हसरत'

आग़ाज़ में ये इश्क़-ए-बद-अंजाम हमारा

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