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आश्ना कब हो है ये ज़िक्र दिल-ए-शाद के साथ - हसरत अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

आश्ना कब हो है ये ज़िक्र दिल-ए-शाद के साथ

आश्ना कब हो है ये ज़िक्र दिल-ए-शाद के साथ

लब को निस्बत है मिरे ज़मज़मा-ए-दाद के साथ

बस कि है चश्म-ए-मुरव्वत से भरा गिर्या-ज़ार

पड़ा फिरता है मिरे नाला-ओ-फ़रियाद के साथ

याद उस लुत्फ़-ए-हुज़ूरी का करें क्या हासिल

आ पड़ा काम फ़क़त अब तो तिरी याद के साथ

ज़ुल्म है हक़ में हमारे तिरा अब तर्क-ए-सितम

दिल को है उन्स सा इक उस तिरी बेदाद के साथ

ज़ुल्फ़ ओ काकुल से क़वी हुस्न का बाज़ू है मुदाम

क़फ़स ओ दाम रहे जैसे कि सय्याद के साथ

ख़ून-ए-नाहक़ रहा परवेज़ की गर्दन पे वले

लुत्फ़-ए-शीरीं ने सितम ये किया फ़रहाद के साथ

रास्ती से भला इतना भी गुज़रना क्या है

निस्बत इस क़द को न दो सर्व के शमशाद के साथ

दस्त ओ पा कर के मैं गुम निकला दबे-पाँव क्या

मिला वो तिफ़्ल मुझे रात जो उस्ताद के साथ

'हसरत' इतना जो तू माइल है गिरफ़्तारी का

कुछ अदावत है तुझे ख़ातिर-ए-आज़ाद के साथ

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