लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
शेरों में थोड़ी गर्मी-ए-जज़्बात भी तो हो
Faiz Ahmad Faiz
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जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
ख़ुद को कभी मैं पा न सका
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
कटती है शब विसाल की पलकें झपकते ही
किस के दिल में बसता हूँ
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की