ख़ुद को कभी मैं पा न सका
जाने कितना गहरा हूँ
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और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
किस के दिल में बसता हूँ
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
दानाइयाँ अटक गईं लफ़्ज़ों के जाल में
लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
खोए हुए पलों की कोई बात भी तो हो
ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की