कटती है शब विसाल की पलकें झपकते ही
जिस की सुब्ह न हो कभी वो रात भी तो हो
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तुम्हारे साथ ये झूटे फ़क़ीर रहते हैं
जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की
किस के दिल में बसता हूँ
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
ख़ुद को कभी मैं पा न सका
लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं