बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की
ये वो खंडर हैं कि जिन में अमीर रहते हैं
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लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
खोए हुए पलों की कोई बात भी तो हो
तुम्हारे साथ ये झूटे फ़क़ीर रहते हैं
कटती है शब विसाल की पलकें झपकते ही
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
ख़ुद को कभी मैं पा न सका
किस के दिल में बसता हूँ
गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार