जो बात हक़ीक़त हो बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर कहिए

जो बात हक़ीक़त हो बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर कहिए

मैं इस का नहीं क़ाइल शबनम को गुहर कहिए

लफ़्ज़ों की हरारत से अज्साम पिघल जाएँ

संजीदा ज़रा हो कर अशआ'र अगर कहिए

अपनों ने पिलाए हैं ज़हराब के घूँट अक्सर

होंटों पे जो ख़ुश्की है तल्ख़ी का असर कहिए

बाज़ार-ए-तसन्नो' के जल्वों की नुमाइश को

टूटे हुए शीशों का अदना सा खंडर कहिए

जज़्बात का ख़ूँ कर दूँ एहसास कुचल डालूँ

ज़ख़्मों से लहू टपके सौ बार अगर कहिए

तख़्लीक़-ए-अजुस्सा या 'हाफ़िज़' की ग़ज़ल 'रहबर'

जिस से हो बक़ा फ़न की मेराज-ए-हुनर कहिए

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