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साँझ-सवेरे फिरते हैं हम जाने किस वीराने में - हसन रिज़वी कविता - Darsaal

साँझ-सवेरे फिरते हैं हम जाने किस वीराने में

साँझ-सवेरे फिरते हैं हम जाने किस वीराने में

सावन जैसी धूप लिखी है क़िस्मत के हर ख़ाने में

उस ने प्यार के सारे बंधन इक लम्हे में तोड़ दिए

जिस की ख़ातिर रुस्वा हैं हम इस बे-दर्द ज़माने में

शब की सियाही और बढ़ेगी और सितारे टूटेंगे

कुछ तो वक़्त लगेगा आख़िर नया सवेरा आने में

कितने पीपल सूख गए हैं कितने दरिया ख़ुश्क हुए

कितने मौसम बीत गए हैं बादल को बहलाने में

सीधे-सादे पंछी की मानिंद वो शायद लौट आए

आस लगाए बैठे हैं हम अपने हैरत-ख़ाने में

पढ़ना लिखना छूट गया है साजन जब से रूठ गया

कड़वी कड़वी से लगती है अब तो हर शय खाने में

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