मैं अपने आप से ग़ाफ़िल न यूँ हुआ होता
मैं अपने आप से ग़ाफ़िल न यूँ हुआ होता
मिरे भी पास अगर कोई आइना होता
ज़रा तू सोच कि इतना ही कर लिया होता
मुझे किताब समझ कर ही पढ़ लिया होता
तमाम उम्र फ़क़त एक आरज़ू ही रही
किया था प्यार तो फिर टूट कर किया होता
ये और बात कि मैं तुझ से दूर हूँ लेकिन
मैं तेरे पास भी होता भला तो क्या होता
पपीहा सावनों में यूँ पुकारता न कभी
अगर तू चाँदनी रातों में मिल गया होता
मिरी बिसात के बारे में पूछने वाले
किसी फ़क़ीर का चेहरा ही पढ़ लिया होता
करूँ तो किस से करूँ मैं गिला जहालत का
ये आरज़ू थी कि मैं भी पढ़ा लिखा होता
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