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कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते - हसन रिज़वी कविता - Darsaal

कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते

कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते

कटी उम्र अपनी क़फ़स क़फ़स तिरी ख़ुशबुओं को पुकारते

न वो मह-जबीनों की टोलियाँ न वो रंग रंग की बोलियाँ

न मोहब्बतों की वो बाज़ियाँ कभी जीतते कभी हारते

वो जो आरज़ूओं के ख़्वाब थे वो ख़याल थे वो सराब थे

सर-ए-दश्त एक भी गुल न था जिसे आँसुओं से सँवारते

था जो एक लम्हा विसाल का वो रियाज़ था कई साल का

वही एक पल में गुज़र गया जिसे उम्र गुज़री पुकारते

थे जो जान से भी अज़ीज़-तर रहे उम्र भर वही बे-ख़बर

थी ये आरज़ू मिरे चारा-गर मिरी नाव पार उतारते

नहीं लब पे कोई सवाल था मिरा दिल तमाम मलाल था

मैं ख़मोश दर पे खड़ा रहा रहे वो भी गेसू सँवारते

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