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इस दर्जा मेरी ज़ात से उस को हसद हुआ - हसन रिज़वी कविता - Darsaal

इस दर्जा मेरी ज़ात से उस को हसद हुआ

इस दर्जा मेरी ज़ात से उस को हसद हुआ

जो भी सवाल मैं ने किया मुस्तरद हुआ

उस ने ही दी सज़ा मुझे सहरा की धूप में

मेरे बदन की छाँव से जो ना-बलद हुआ

ऐसी चली हवा कि हर इक शाख़ जल गई

वो पेड़ जो हरा था ग़मों की सनद हुआ

सोचें हैं ख़्वाब-ख़्वाब तो तहरीर आब-आब

हम क्या कहें कि कौन यहाँ नेक-ओ-बद हुआ

उस की ही आरज़ू में ये चेहरे उदास हैं

वो आइना कि जिस का तक़ाज़ा अशद हुआ

जिस ने सदाक़तों को लहू से किया रक़म

उस शख़्स का हर एक सुख़न मुस्तनद हुआ

मेरा सितारा उस के सितारे से यूँ मिला

मेरा और उस का नाम 'हसन' हम-अदद हुआ

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