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हवा के रुख़ पर चराग़-ए-उल्फ़त की लौ बढ़ा कर चला गया है - हसन रिज़वी कविता - Darsaal

हवा के रुख़ पर चराग़-ए-उल्फ़त की लौ बढ़ा कर चला गया है

हवा के रुख़ पर चराग़-ए-उल्फ़त की लौ बढ़ा कर चला गया है

वो इक दिए से न जाने कितने दिए जला कर चला गया है

हम उस की बातों की बारिशों में हर एक मौसम में भीगते थे

वो अपनी चाहत के सारे मंज़र हमें दिखा कर चला गया है

उसी के बारे में हर्फ़ लिक्खे उसी पे हम ने ग़ज़ल कही है

जो कजली आँखों से मेरे दिल में नक़ब लगा कर चला गया है

मता-ए-जाँ भी उसी पे वारी उसी के दम से है साँस जारी

मिरे बदन में वो ख़ुशबुओं की हवा बसा कर चला गया है

ये फ़स्ल-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल अपनी उसी के दम से हरी-भरी है

जो कच्चे कोठों के आँगनों से धुआँ उठा कर चला गया है

हमारी आँखों में रतजगे की झड़ी लगी है उसी घड़ी से

कि जब से कोई ग़ज़ाल अपनी झलक दिखा कर चला गया है

हिरन मोहब्बत के सब्ज़ा-ज़ारों में जाने कब चौकड़ी भरेंगे

वो जाते जाते सवाल ऐसा 'हसन' उठा कर चला गया है

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