अब के यारो बरखा-रुत ने मंज़र क्या दिखलाए हैं
अब के यारो बरखा-रुत ने मंज़र क्या दिखलाए हैं
जलते बुझते चेहरे हैं और मद्धम मद्धम साए हैं
आज भी सूरज के बुझते ही हल्की गहरी शाम हुई
आज भी हम ने तन्हा घर में अंगारे दहकाए हैं
कौन किसी का दुख-सुख बाँटे कौन किसी की राह तके
चारों जानिब चलते-फिरते ख़ुद-ग़र्ज़ी के साए हैं
उन की याद में पहरों रोना अपनी यही बस आदत है
लोग भी कैसे दीवाने हैं हमें हँसाने आए हैं
हम प्यासों के दिल में आग लगाने का है शौक़ 'हसन'
या फिर बादल आज किसी की ज़ुल्फ़ें छूने आए हैं
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