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निदा-ए-तख़्लीक़ - हसन नईम कविता - Darsaal

निदा-ए-तख़्लीक़

सुकूत-ए-नीम-शबी में किसी ने दी आवाज़

'नईम' दिल से निकालो न ख़ार-हा-ए-ख़लिश

सुकून है तो इसी इज़्तिराब में कुछ है

गुज़ार-ए-शौक़ में, सोज़-ए-तलाश में कुछ है

जुनूँ के जुमला मराहिल से तुम गुज़र देखो

जमाल-ए-फ़िक्र से आबाद है दिल-ए-वीराँ

शरार-ए-दिल से मुनव्वर जहान-ए-फ़र्दा है

ये कौन मुझ से मुख़ातिब है इतनी क़ुर्बत से

ये किस ने ज़ख़्म को दस्त-ए-शिफ़ा से छेड़ा है,

इसी ख़याल में गुम था कि फिर सदा आई

कमाल-ए-अर्ज़-ए-सुख़न जिस को तुम समझ बैठे

वो इज्ज़-ए-फ़िक्र है इक़रार-ए-बे-ज़बानी है

निकल के आओ ज़रा कूचा-ए-ख़बर देखो

हर एक चाक-गिरेबाँ हर एक गर्द-आलूद

न क़त्ल-गह से हिरासाँ न संगसारों से

कि एक उम्र गुज़रती है जुस्तुजू करते

नज़र को तेज़ हक़ीक़त को रू-ब-रू करते

बस एक तुम कि तुम्हारे क़दम नहीं उठते

क़ुयूद-ए-अस्र की ज़ंजीर काटने वाले

फ़राज़-ए-कोह से आवाज़ दे रहे हैं तुम्हें

पयम्बरों के मक़ामात दे रहे हैं तुम्हें

रुख़-ए-सहर से हटाओ रिदा-ए-शब लिल्लाह

अज़ाब-ए-नार से गुज़रो कि तौफ़-ए-नूर करो

जिगर के दाग़ से रक्खो हरीम-ए-जाँ रौशन

शुआ-ए-दर्द को चूमो गले लगाओ 'नईम'

सर-ए-वजूद झुकाए सुना किया सब कुछ

तमाम जिस्म था गोया निशाना-ए-आवाज़

तमाम रूह थी सामे तमाम ग़म बेदार

सुकूत-ए-शब में

सदा गूँजती रही पहरों

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