ख़ेमा-ए-याद
उस सुब्ह जब कि मेहर
दरख़्शाँ है चार-सू
मौसम बहार का है
ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं सब तुयूर
सब्ज़े सबा के लम्स से ख़ुश हैं निहाल हैं
इक साया इस दरख़्त इसी शाख़ के तले
तन्हाइयों की रुत में है मग़्मूम ओ मुज़्तरिब
बंद-ए-क़बा-ए-शब से उलझता है बार बार
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