एक दरख़्त एक तारीख़
जैसे झुक कर उस ने सरगोशी में मुझ से ये कहा
वो दयार-ए-ग़र्ब हो कि गुलसितान-ए-शर्क़ हो
ज़ुल्म के मौसम में बू-ए-गुल से खिलते हैं गुलाब
जुस्तुजू की मंज़िलों में ख़्वाब की मिशअल लिए
डालियों पर आ के गिरते हैं थके-माँदे परिंद
आशियाँ-बंदी में रंग ओ नस्ल की तमईज़ क्या
तफ़रीक़ क्या
जाबिर ओ मजबूर की दुनिया अलग उक़्बा अलग
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