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यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था - हसन नईम कविता - Darsaal

यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था

यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था

जहाँ पे उँगलियाँ कटती थीं सर कटाना था

मुझे भी अब्र किसी कोह पर गँवा देता

मैं बच गया कि समुंदर का मैं ख़ज़ाना था

तमाम लोग जो वहशी बने थे आक़िल थे

वो एक शख़्स जो ख़ामोश था दिवाना था

पता चला ये हवाओं को सर पटकने पर

मैं रेग-ए-दश्त न था संग-ए-सद-ज़माना था

तमाम सब्ज़ा-ओ-गुल थे मुलाज़िम-ए-मौसम

कली का फ़र्ज़ ही गुलशन में मुस्कुराना था

मिरे लिए न ये मस्ती न आगही है हराम

मुझी को बज़्म से उठना था सर उठाना था

वो मेरे हाल से मुझ को परख रहे थे 'हसन'

मिरी निगाह में गुज़रा हुआ ज़माना था

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