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वो कज-निगाह न वो कज-शिआ'र है तन्हा - हसन नईम कविता - Darsaal

वो कज-निगाह न वो कज-शिआ'र है तन्हा

वो कज-निगाह न वो कज-शिआ'र है तन्हा

बस इक पयम्बर-ए-जन्नत-निसार है तन्हा

न बुलबुलों की अज़ाँ है न तितलियों का तवाफ़

अभी चमन में गुल-ए-नौ-बहार है तन्हा

उठाए मिन्नत-ए-सरसर कि नाज़-ए-बाद-ए-नसीम

हर एक हाल में सहरा शिकार है तन्हा

फ़लक नुजूम से रौशन ज़मीं चराग़ों से

हुजूम-ए-नूर में इक शाम-ए-तार है तन्हा

जमी है बज़्म-ए-मसर्रत ग़ज़ाल-चश्मों से

जिसे मिली है नज़र अश्क-बार है तन्हा

हमीं ने खेमा-ए-हिज्राँ में काट दीं रातें

हमीं को फ़िक्र थी बेहद कि यार है तन्हा

चहल-पहल है बहुत यूँ तो मय-कदे में 'नईम'

मियान-ए-जाम-ओ-सुबू बादा-ख़्वार है तन्हा

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