सुब्ह-ए-तरब तो मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़र गई
सुब्ह-ए-तरब तो मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़र गई
शाम-ए-अलम जो आई तो आ कर ठहर गई
देखा किसी ने औज-ए-तसव्वुर न औज-ए-फ़न
पिन्हाँ था दाग़-ए-ऐब तो सब की नज़र गई
याद-ए-ख़ुदा से बाब-ए-हरम तक खुला नहीं
याद-ए-बुताँ से दिल पे क़यामत गुज़र गई
तड़पा क़फ़स में कौन जो ऐ सुब्ह-ए-नौ-बहार
रू-ए-गुल-ओ-गियाह सबा चश्म-तर गई
इतना दिल-ए-'नईम' को वीराँ न कर हिजाज़
रोएगी मौज-ए-गंग जो उस तक ख़बर गई
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