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रात गुज़री कि शब-ए-वस्ल का पैग़ाम मिला - हसन नईम कविता - Darsaal

रात गुज़री कि शब-ए-वस्ल का पैग़ाम मिला

रात गुज़री कि शब-ए-वस्ल का पैग़ाम मिला

सो गए ख़्वाब की बाँहों में जो आराम मिला

ढूँडते रहिए शब-ओ-रोज़ उमीदों के क़दम

कूचा-ए-ज़ीस्त में ले दे के यही काम मिला

ख़ूबी-ए-बख़्त कि जब भूल चुका था सब कुछ

बेवफ़ाई का लब-ए-ग़ैर से इल्ज़ाम मिला

पा-पियादा था मगर राह में वो धूम मची

झुक के ताज़ीम से शहज़ादा-ए-अय्याम मिला

हम ने बेची नहीं जिस रोज़ मता-ए-ग़ैरत

इक पियाला भी न मय का हमें उस शाम मिला

मुख़्तसर ये है कि जब वक़्त-ए-विदा-ए-गुल था

ख़्वाब में आ के गले मुझ से वो गुलफ़ाम मिला

हम जुनूँ है कि नहीं राह में पूछेंगे 'नईम'

दश्त-ए-ग़ुर्बत में ये क्या कम है कि हमनाम मिला

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