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क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से - हसन नईम कविता - Darsaal

क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से

क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से

हर एक हर्फ़ हुआ साहब-ए-नवा तुझ से

ज़बाँ-कुशाई-ए-ग़म से खुली किताब-ए-ख़याल

वरक़ वरक़ पे खुला हुस्न-ए-मुद्दआ' तुझ से

ज़मीं में फूट पड़ा चश्मा-ए-जुनूँ-सामाँ

गुलों में सर्द पड़ी आतिश-क़बा तुझ से

कहाँ से ज़ूद-फ़रामोशियों की ख़ू सीखी

जो देखिए तो न थी बर्क़-आश्ना तुझ से

पहुँच तो जाता सर-ए-ख़ेमा-ए-वफ़ा-आबाद

मगर है सुस्त क़दम उम्र-ए-तेज़-पा तुझ से

किए थे काम जो दिल के सिपुर्द उन को भी

दिमाग़-ए-दहर से बढ़ कर है अब गिला तुझ से

हुआ जो कूचा-ए-तन्क़ीद में 'हसन' रुस्वा

मिलाया ग़ैब ने 'ग़ालिब' का सिलसिला तुझ से

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