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मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी - हसन नईम कविता - Darsaal

मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी

मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी

सब हुनर आते थे लेकिन अक़्ल से यारी न थी

जिन दिनों इख़्लास में थोड़ी सी अय्यारी न थी

हुस्न के दरबार में साबित वफ़ादारी न थी

सर-कशी के अहद-नामों की हिफ़ाज़त के लिए

मेरे क़ल्ब-ओ-जाँ से बेहतर कोई अलमारी न थी

जिन उसूलों के लिए जीना बहुत मुश्किल हुआ

उन की ख़ातिर जान दे देने में दुश्वारी न थी

हुस्न ही का वो इलाक़ा था जहाँ सब कुछ मिला

इश्क़ की अपनी अलग कोई ज़मीं-दारी न थी

सब परेशाँ हैं कि आख़िर किस वबा में वो मिरे

जिन को ग़ुर्बत के अलावा कोई बीमारी न थी

किस तरह बाद-ए-फ़ना से मैं बचा लेता उसे

उस ग़ज़ल पैकर में कोई फ़न की चिंगारी न थी

रोज़ इक मूज़ी को नेज़े पर उठाता था 'नईम'

इंक़िलाबी क़ुव्वतों की जब समझदारी न थी

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