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मैं किस वरक़ को छुपाऊँ दिखाऊँ कौन सा बाब - हसन नईम कविता - Darsaal

मैं किस वरक़ को छुपाऊँ दिखाऊँ कौन सा बाब

मैं किस वरक़ को छुपाऊँ दिखाऊँ कौन सा बाब

किसी हबीब ने माँगी है ज़िंदगी की किताब

हमें न भूलना आलाम-ए-सद-ज़माँ कि यहाँ

हमीं हैं मस्कन-ए-हिरमाँ हमीं हैं बैत-ए-अज़ाब

इन्ही से शब में उजाला इन्ही से नूर-ए-ख़याल

मिरे लिए तो बहुत कुछ हैं दीदा-ए-बे-ख़्वाब

गया था दश्त से उठ कर समुंदरों की तरफ़

वहाँ भी तिश्ना-नसीबी वहाँ भी मर्ग-ए-सराब

पकड़ के दामन-ए-दिल या झुका के सर अपना

दिया है ख़्वाब-ए-शिकस्ता का हर किसी को हिसाब

मिरे कलाम की तफ़्सीर के लिए पढ़िए

जमाल-ए-फ़िक्र की आयत नवा-ए-जाँ की किताब

वो आँखें प्यार के लहजे में कह रही थीं 'हसन'

हमीं से माँग पियाला हमीं से माँग शराब

हवा बहार के मौसम में यूँ चली कि 'नईम'

न सुर्ख़-रू था गुलिस्ताँ न सुर्ख़-रू थे गुलाब

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