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कू-ए-रुसवाई से उठ कर दार तक तन्हा गया - हसन नईम कविता - Darsaal

कू-ए-रुसवाई से उठ कर दार तक तन्हा गया

कू-ए-रुसवाई से उठ कर दार तक तन्हा गया

मुझ से जीते-जी न दामन ख़्वाब का छोड़ा गया

क्या बिसात-ए-ख़ार-ओ-ख़स थी फिर भी यूँ शब-भर जले

दोश पर बाद-ए-सहर के दूर तक शोअ'ला गया

रूह का लम्बा सफ़र है एक भी इंसाँ का क़ुर्ब

मैं चला बरसों तो उन तक जिस्म का साया गया

किस को बे-गर्द-ए-मसाफ़त शौक़ की मंज़िल मिली

नग़्मा-गर की ख़ल्वतों तक बार-हा नग़्मा गया

कौन मुझ को ढूँढता था कुछ पता चलता नहीं

बज़्म-ए-ख़ूबाँ में हज़ारों बार मैं आया गया

हम वो शाएर कि सुनाते हैं सुरूद-ए-जाँ 'हसन'

एक भी शोला-नफ़स महफ़िल में गर देखा गया

मिल गए जब निर्मा-दिश्वर दश्त-ए-ग़ुर्बत में 'नईम'

इक नया रिश्ता अज़ीमाबाद से जोड़ा गया

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