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ख़्वाब की राह में आए न दर-ओ-बाम कभी - हसन नईम कविता - Darsaal

ख़्वाब की राह में आए न दर-ओ-बाम कभी

ख़्वाब की राह में आए न दर-ओ-बाम कभी

इस मुसाफ़िर ने उठाया नहीं आराम कभी

रश्क-ए-महताब है इक दाग़-ए-तमन्ना कब से

दिल का नज़्ज़ारा करो आ के सर-ए-शाम कभी

शब-ब-ख़ैर उस ने कहा था कि सितारे लरज़े

हम न भूलेंगे जुदाई का वो हंगाम कभी

सरकशी अपनी हुई कम न उम्मीदें टूटीं

मुझ से कुछ ख़ुश न गया मौसम-ए-आलाम कभी

हम से आवारों की सोहबत में है वो लुत्फ़ कि बस

दो घड़ी मिल तो सही गर्दिश-ए-अय्याम कभी

ऐ सबा मैं भी था आशुफ़्ता-सरों में यकता

पूछना दिल्ली की गलियों से मिरा नाम कभी

नुदरत-ए-फ़िक्र ने गर साथ जो छोड़ा तो 'नईम'

अपने सर लेंगे ततब्बो का न इल्ज़ाम कभी

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