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जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं - हसन नईम कविता - Darsaal

जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं

जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं

संग-रेज़ों की गिरह में कहकशाँ कोई नहीं

क्या ख़बर है किस किनारे इस सफ़र की शाम हो

कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ में बादबाँ कोई नहीं

आशिक़ों ने सिर्फ़ अपने दुख को समझा मो'तबर

मेहर सब की आरज़ू है मेहरबाँ कोई नहीं

एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास

एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं

हसरतों की आबरू तहज़ीब-ए-ग़म से बच गई

इस नफ़ासत से जला है दिल धुआँ कोई नहीं

कट चुके हैं अपने माज़ी से सुख़न के पेशा-वर

मर्सिया-गो सो चुके और क़िस्सा-ख़्वाँ कोई नहीं

पूछता है आज उन का बे-तकल्लुफ़ सा लिबास

इस गली में क्या जियाला नौजवाँ कोई नहीं

वो रहे क़ैद-ए-ज़माँ में जो मकीन-ए-आम हो

लम्हा लम्हा जीने वालों का मकाँ कोई नहीं

मजलिसों की ख़ाक छानी तो खुला मुझ पर 'नईम'

आज़मी सा ख़ुश-निगाह ओ ख़ुश-बयाँ कोई नहीं

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