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जादू-ए-ख़्वाब में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए - हसन नईम कविता - Darsaal

जादू-ए-ख़्वाब में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए

जादू-ए-ख़्वाब में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए

बारिश-ए-संग हुई भी तो न बेदार हुए

जब थे ख़ुश-हाल भले लगते थे रिश्ते ग़म के

अब वही रिश्ते मिरी जान का आज़ार हुए

जब तलक पाँव में वहशत थी जुनूँ में ताक़त

न किसी साए में बैठे न कभी ख़ार हुए

मैं ने जब गल्फ़ में कुछ दौलत-ओ-इज़्ज़त पाई

आलम-ए-फ़न भी मिरे हक़ में रज़ाकार हुए

जब खुले नक़्द के औसाफ़ ब-फ़ैज़-ए-नक़्दी

कुछ रिसालों के एडीटर भी तरफ़-दार हुए

वस्ल से जिन के है मग़रिब में क़यामत सी बपा

उन ही लौंडों के लिए 'मीर'-जी बीमार हुए

गोलियाँ चलने को तय्यार थीं पहले से 'नईम'

हम तो बस झंडा उठाने के गुनहगार हुए

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