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जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है - हसन नईम कविता - Darsaal

जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है

जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है

अपना अज़ल से एक हुसैनी मिज़ाज है

आगे तो ज़हर-ए-इश्क़ में सब ज़हर थे घुले

अब शाइरी की जान रग-ए-एहतिजाज है

आली नज़र के शेर पे तीखे मुबाहिसे

बे-नूर आलिमों का मरज़ ला-इलाज है

हर आन हैं दिमाग़ में अफ़कार-ए-शब-नवाज़

इस ग़म की सल्तनत में बस इक दिल सिराज है

क्या दी है लब-कुशाई की क़ीमत उसे भी देख

इस दफ़्तर-ए-नवा में सभी इंदिराज है

इस सोंधी मिट्टियों ने दिया रंग ओ ज़ाइक़ा

हीरों से बढ़ के आब में मुल्की अनाज है

'इक़बाल' की नवा से मुशर्रफ़ है गो 'नईम'

उर्दू के सर पे 'मीर' की ग़ज़लों का ताज है

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